याद रहे कि गांधीजी के समय तक अहिंसा के जरिये स्वतंत्रता प्राप्ति की बात अकल्पनीय थी क्योंकि दुनिया भर में तब तक आजादी पाने का मतलब ही खूनी संघर्ष थे। उनके अहिंसा के प्रति इसी विश्वास के कारण विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने लेख ‘महात्मा गांधी‘ में लिखा है- ‘दुनिया में स्वाधीनता-लाभ का इतिहास रक्त की धारा से पंकिल है, अपहरण और दस्यु-वृत्ति से कलंकित है। लेकिन महात्मा गांधी ने यह दिखाया है कि हत्याकांड को आश्रय दिये बगैर भी स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है।’ दिलचस्प बात तो यह है कि गुरुदेव ने यह बात दो अक्टूबर, 1937 को लिखे एक लेख में कही थी जब देश आजाद भी नहीं हुआ था।
गांधी-दर्शन का सबसे मजबूत पाया है अहिंसा का सिद्धांत, बावजूद इसके कि बापू अहिंसा के प्रवर्तक या जनक नहीं थे। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में महावीर और बुद्ध इसे हमारी वैचारिक बुनावट और समग्र जीवन प्रणाली का हिस्सा सदियों पहले बना चुके थे। गांधी ने तो अहिंसा को हमारी राष्ट्रीय चेतना से जोड़ा, राजनैतिक-सामाजिक जीवन में गूंथा तथा हमारे विकास की अवधारणा का प्रमुख आधार बनाया है। अहिंसा उनके लिये किसी सियासती रणनीति का साधन, मौकापरस्ती अथवा कुटिलतापूर्वक इस्तेमाल में लाया जाने वाला सूत्र नहीं था, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन व उसके जरिये मिलने वाली तयशुदा आजादी के बाद वह जनजीवन के भौतिक व नैतिक उत्थान के अक्षय साधनों में से एक रही है। किशोरावस्था से लेकर दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ लड़ने के दौरान और देश की आजादी का नेतृत्व करते हुए इसे गांधी ने कभी भी नहीं छोड़ा वरन वे विरासत में हमें ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आग्रह सौंप गये हैं जिसका भरोसा अहिंसा में शाश्वत हो। बावजूद इसके कि इस दौरान हमने अहिंसा को शब्दों व भावना के स्तर पर कई बार तार-तार होते देखा है, उसके प्रति हमारा भरोसा इसलिये पूरी तरह चुका नहीं है क्योंकि हम यह भी देखते आये हैं कि इस सिद्धांत को जब-जब तिलांजलि देने के प्रयास हुए हैं, भारत का सामाजिक गठन और राष्ट्रीय चरित्र गिरता हुआ ही प्रतीत हुआ है और हर ऐसे मौकों पर देश लड़खड़ाया है।
वह चाहे देश विभाजन का समय हो अथवा स्वतंत्र भारत के इतिहास की अनेक हिंसक घटनाएं- शायद गांधी द्वारा हममें भरी गयी नैतिक शक्ति ही अहिंसा के प्रति हमारे भरोसे को टूटने नहीं देती। यह चिंताजनक बात है कि पिछले कुछ समय से अहिंसा को एक निरर्थक वस्तु मानने वाली शक्तियां हिंसा को देश की सामाजिक प्रणाली के केन्द्र में लाने के लिये प्रयासरत हैं। उम्मीद यही है कि भारत अहिंसा के सूत्र को थामे रहेगा और देर-सबेर लोगों का विश्वास इस मानवीय गुण की सही कीमत जान पायेगा।
यह कहते हुए कि ‘आज का भारत गांधी का भारत है और गांधी नाम आज के भारत नाम का पूरा पर्याय है’, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी सुप्रसिद्ध किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में गांधीजी के महाव्यापक प्रभाव का अध्ययन किया है।
इसमें दिनकर ने यह जानने की कोशिश की है कि ‘अहिंसा भारत में ही क्यों?’ इसके जवाब में वे कहते हैं- ‘संसार का ध्यान गांधीजी की ओर इसलिये आकृष्ट हुआ कि उन्होंने पशु-बल के समक्ष आत्म-बल का शस्त्र निकाला, तोपों और मशीनगनों का सामना करने के लिये अहिंसा का आश्रय लिया। सोचने की बात यह है कि अहिंसा का आश्रय उन्होंने लिया क्यों? क्या इसलिये कि अंग्रेजों के विरूद्ध हिंसा का आश्रय लेकर वे भारत को स्वाधीन नहीं करा सकते थे? अथवा इसलिये कि वे मानव-समाज को यह संदेश देना चाहते थे कि मनुष्य जब तक पाशविक साधनों का प्रयोग करने के लिये बाध्य है, तब तक वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता। (दूसरी बात) अहिंसा मनुष्य के विकास का साधन होती है।’
दिनकरजी बताते हैं कि पहले अधिकांश लोगों का विचार था कि हम अंग्रेजों से शस्त्रों के बल पर नहीं लड़ सकते इसलिये हमने अहिंसा का सहारा लिया है लेकिन गांधीजी इस बात को सही नहीं मानते थे। अहिंसा को गंवाकर वे भारत को स्वाधीन करने के पक्ष में नहीं थे। स्वाधीनता उनका बहुत बड़ा लक्ष्य थी लेकिन उससे भी बड़ा ध्येय मानव-स्वभाव में परिवर्तन लाना था। वे यह विश्वास दिलाना चाहते थे कि जिन ध्येयों की प्राप्ति के लिये लोग पाशविक साधनों का सहारा लेना चाहते हैं, उनकी प्राप्ति मानवोचित साधनों से भी संभव है। राष्ट्रकवि ने सवाल खड़ा किया है कि ‘गांधी ने ऐसा निश्चय क्यों किया और अहिंसा का यह प्रयोग किसी अन्य देश में आरम्भ न होकर भारत में ही क्यों हुआ?’ खुद ही वे जवाब में बताते हैं कि सत्याग्रह व सविनय अवज्ञा की कल्पना अमरीकी चिंतक थुरो ने भी की थी और उसकी थोड़ी झलक सन्त-साहित्यकार टॉल्सटॉय को भी मिल चुकी थी। गांधीजी इनके विचारों से परिचित थे।
महर्षि अरविंद भी देश के समक्ष सविनय अवज्ञा और असहयोग (हिंसा के दो वैकल्पिक उपकरण) के सुझाव देश के सामने रख चुके थे। बकौल दिनकर ‘थुरो, टॉल्सटॉय, अथवा एमर्सन और रोम्यां रोलां में इस प्रकार की जब भी कोई भावना जगी, तब उसके पीछे भारतीय दर्शन की उत्तेजना काम कर रही थी।’ सो, जो लोग अहिंसा की भावना को अभारतीय या अप्रासंगिक समझते हैं उन्हें भी यह पढ़कर अपने दिमाग के जाले साफ कर लेने चाहिये। गांधीजी ने एक नितांत भारतीय दर्शन को ही परिपक्व व पुनर्प्रतिष्ठित किया है। साथ ही, उन्होंने उसकी व्यवहारिकता साबित करते हुए उत्तर-स्वातंत्र्यकाल में उसकी टिकाऊ उपयोगिता पर भी बल दिया था।
याद रहे कि गांधीजी के समय तक अहिंसा के जरिये स्वतंत्रता प्राप्ति की बात अकल्पनीय थी क्योंकि दुनिया भर में तब तक आजादी पाने का मतलब ही खूनी संघर्ष थे। उनके अहिंसा के प्रति इसी विश्वास के कारण विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने लेख ‘महात्मा गांधी’ में लिखा है- ‘दुनिया में स्वाधीनता-लाभ का इतिहास रक्त की धारा से पंकिल है, अपहरण और दस्यु-वृत्ति से कलंकित है। लेकिन महात्मा गांधी ने यह दिखाया है कि हत्याकांड को आश्रय दिये बगैर भी स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है।’
दिलचस्प बात तो यह है कि गुरुदेव ने यह बात दो अक्टूबर, 1937 को लिखे एक लेख में कही थी जब देश आजाद भी नहीं हुआ था। यह था अहिंसा के प्रति हमारा सामूहिक विश्वास जिसकी अभिव्यक्ति संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के सच्चे प्रतिनिधि कवि कहे जाने वाले व्यक्ति के मानस और आत्मा से हुई थी। बापू के लिये अहिंसा का मसला ‘आजादी मिल जाने दो’, ‘बाद में देखेंगे’ या ‘फिर कभी करेंगे’ वाला न होकर ‘आज ही’ और ‘अभी से’ वाला था। उनकी सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह और आंदोलन अहिंसक स्वरूप के थे। चौरी-चौरा कांड के कारण चरमोत्कर्ष पर पहुंचे असहयोग आंदोलन (1922) को रद्द कर गांधीजी ने विश्व को तो चौंकाया ही था, मनुष्यता को शर्मसार होने से भी बचा लिया था।
हमें यह सब एक बार फिर से इसलिये याद करना जरूरी हो गया है क्योंकि पिछले कुछ अरसे से हिंसा हमारी सोच, विमर्श और व्यवहारिक जीवन में तेजी से घर बनाती जा रही है। समाज को लगातार हिंसक बनाया जा रहा है। सबसे खतरनाक बिंदु पर तो हमारी समग्र राजनीति और खासकर सत्ता पहुंच गयी है। वह लम्हा सचमुच आशा लेकर आया था जब करीब छह साल पहले नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि वे ऐसी व्यवस्था बनाएंगे कि जनप्रतिनिधियों द्वारा किये गये अपराधों पर फैसले छह माह के भीतर आ जायें। हो रहा है उल्टा। हाल के वर्षों में अपराधियों को जैसा संरक्षण और उनका जैसा महिमा मंडन हुआ है वैसा पहले कभी भी नहीं हुआ था। उनकी अपनी पार्टी के लोग अनेकानेक प्रकार के अपराधों में संलिप्त हैं। हत्या और बलात्कार समेत अनेक अपराधी कानून-व्यवस्था को धता बता रहे हैं। अपराधों को धर्मों, जातियों, समुदायों, प्रांतों, राजनैतिक संगठनों व विचारधाराओं में वर्गीकृत किया जा रहा है। भूलना न होगा कि हर तरह के अपराधों का मूलाधार हिंसा ही है।
पिछले कुछ समय से सर्वत्र उफनती हिंसा को मिलते राज्याश्रय से विकास होने की संभावना नहीं वरन कानपुर के ‘विकास दुबे’ (यहां व्यक्ति विशेष की बात हो रही है) जैसे लोगों के पनपने की ही गुंजाइशें हो सकती हैं जो कई पुलिस वालों को कथित रूप से मारने के बाद भी कानून की पकड़ से बाहर है। स्पष्ट है कि हिंसा लोकतांत्रिक व अधिकृत सत्ता के समांतर अलोकतांत्रिक व असांवैधानिक शक्ति केन्द्र खड़े करती है। इसमें संसाधनों का वितरण व अवसरों की उपलब्धता विकेंद्रित न होकर केंद्रीकृत होती है जिसमें स्वतंत्रता और समानता सहित सभी तरह के मानवाधिकारों का हनन होता है। अगर समग्र विकास चाहिये तो हिंसा का समाज से पूरी तरह उन्मूलन करना होगा।
‘अहिंसा’ का दर्शन हमारे वैचारिक मंथन से निकला हुआ वह अमृत-तत्व है जिसने इतिहास की सबसे कठिन बेला में (स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान) हमें नवजीवन दिया था। इसे देशवासी जाया न होने दें। हिंसा न तो समाज के भौतिक विकास को पनपने देगी और न ही हमारे नैतिक पुनरुद्धार की प्रक्रिया को गतिमान करेगी। हिंसा अंतत: सत्ता का ही उपकरण होती है जिसका उपयोग वह सब पर करती है- पहले विरोधियों, फिर सहयोगियों और अंतत: अनुयायियों पर। अगर कोई सोचता है कि हिंसा उनके पड़ोसियों के दरवाजे खटखटाकर लौट जायेगी तो वह बेशक नादान है। हिंसा, चाहे सत्ता समर्थित हो या समाज के किसी भी धड़े द्वारा प्रवर्तित, उसे आपकी भी चौखट लांघकर भीतर आना ही है। हम-आप तो बस इंतजार करें!